रुख्सर
मेरे जीने के लिये एक आसरा दर्करर था,
दुनिया गम देती गयी मेरी गुज़र होती गयी ।
जल्वे मचल गये तो सेहर का गुमा हुआ ,
ज़ुल्फे बिखर गयी तो सैअह रात हो गयी ।
हमें आपनो के सितम याद आये,
जब भी गरोन की इनायत देखी ।
तमस सी भरी ज़िन्दगी में ,
उमीद की रोशनी देखी।
न जाने क्यूँ हक़ीकत तस्वूर से दर हो गयी,
आन्सोन से पल्को को भिगोने की तम्मना,
भी हमसे रुख्सर हो गयी ।
कवि : गुरुशरण जी की रचना
6 टिप्पणियाँ:
सुंदर भाव।
सार्थक अभिव्यक्ति।
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अदभुत है हमारा शरीर।
अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद कैसे सफल होगा?
अच्छी रचना प्रस्तुत की है आपने
न जाने क्यूँ हक़ीकत तस्वूर से दर हो गयी,
आन्सोन से पल्को को भिगोने की तम्मना,
भी हमसे रुख्सर हो गयी ।
बहुत खूब शुभकामनायें
बढ़िया नज़्म है!
bahut he sundar nazm.
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत बढ़िया लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है!
मेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!
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