संसार कल्पब्रृक्ष है इसकी छाया मैं बैठकर हम जो विचार करेंगे ,हमें वेसे ही परिणाम प्राप्त होंगे ! पूरे संसार मैं अगर कोई क्रान्ति की बात हो सकती है तो वह क्रान्ति तलवार से नहीं ,विचार-शक्ति से आएगी ! तलवार से क्रान्ति नहीं आती ,आती भी है तो पल भर की, चिरस्थाई नहीं विचारों के क्रान्ति ही चिरस्थाई हो सकती है !अभिव्यक्ति ही हमारे जीवन को अर्थ प्रदान करती है। यह प्रयास है उन्ही विचारो को शब्द देने का .....यदि आप भी कुछ कहना चाहते है तो कह डालिये इस मंच पर आप का स्वागत है….
" जहाँ विराटता की थोड़ी-सी भी झलक हो, जिस बूँद में सागर का थोड़ा-सा स्वाद मिल जाए, जिस जीवन में सम्भावनाओं के फूल खिलते हुए दिखाई दें, समझना वहाँ कोई दिव्यशक्ति साथ में हें ।"
चिट्ठाजगत

बुधवार, 27 मई 2009

तुम्हारी आंखें!

तुम्हारी आंखें!
कभी मेरे चेहरे के आस-पास
सरगोशियाँ करती हैं...
कभी आधी रात को ख्वाबों में
मेरी अंखियों से अठखेलियाँ करती हैं...
तुम्हारी आंखें!
गिरती है जब बारिश कभी मेरे तन पर
इन्हीं से निकली आंसुओं की बूंद सी लगती है...
सूख जाती है बारिश तो बरसने के बाद,
पर तुम्हारी आँखों में क्यों मुझे नमी सी लगती है...
तुम्हारी आंखें!
कुछ तो कहानी है इनमें,
जो मेरे कानो पे ये सुबकती हैं...
बोलती तो कुछ नहीं हैं पर,
एकटक मुझी को तकती हैं...
क्या करूँ में इनका, मेरी ज़िंदगी सालों से सोयी नहीं है?
तुम्हारी पथराई आँखों को देख मेरी आंख भी कब से रोई नहीं है...
वापस आ जाओ तुम कहाँ चली गई हो?
साथ अपने मेरी हँसी ले गई हो...
अपने होंठों के तले तुम्हारी आँखों को,
ढेर सा आराम दूंगा...
तुम्हारी आँखों में देखकर,
बाकि ज़िंदगी भी गुजार दूंगा...
तडपता है दिल जब ये,
मेरा पीछा करती हैं...
मुड़कर देखता हूँ तो,
छलका करती हैं...
अब सहन नहीं होता,
मुझे अपनी आँखों से मिला दो...
जहाँ तुम छुप गई हो...
मुझे भी छुपा दो....

कवि : मीत जी की रचना

10 टिप्पणियाँ:

abhivyakti 27 मई 2009 को 3:56 pm बजे  

मीत जी आप के इस सहयोग के लिए बहुत बहुत आभार

sada 27 मई 2009 को 5:15 pm बजे  

भावपूर्ण रचना के लिए, बधाई ।

दिगम्बर नासवा 27 मई 2009 को 5:37 pm बजे  

आँखों ही आँखों में कही...........आँखों की लाजवाब कविता मीत जी को धन्यवाद

श्यामल सुमन 27 मई 2009 को 6:34 pm बजे  

आँखों को केन्द्र में रखकर अच्छी प्रस्तुति। वाह। जब आँखों की बात चली तो पेश है कुछ पंक्तियाँ-

जब होती चार आँखें, आँखों से होती बातें।
आँखों से प्यार होता, आखों में कटती रातें।
आखों को चुभती आँखें, जो आँखें होती सूनी।
ममता से पूर्ण आँखें, आँखें भी होती खूनी।
एक आँख बिछाते हैं, एक आँख से छलते हैं।
एक दीप सा जलते हैं, एक द्वेष में जलते हैं।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Vinay 27 मई 2009 को 7:54 pm बजे  

ऐसा लगा कि अपने ही दिल का हाल पढ़ रहा हूँ

लोकेन्द्र विक्रम सिंह 27 मई 2009 को 9:15 pm बजे  

खूब बहुत खूब......... दिल की आवाज शब्दों के माध्यम से.........

अजय कुमार झा 27 मई 2009 को 10:26 pm बजे  

meet jee kee adbhut rachnaa se rubaroo karwane ke liye shukriyaa...

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) 11 जून 2009 को 12:59 pm बजे  

क्या करूँ में इनका, मेरी ज़िंदगी सालों से सोयी नहीं है?
तुम्हारी पथराई आँखों को देख मेरी आंख भी कब से रोई नहीं है...
मीत जी बहुत ही सुन्दर रचना बधाई
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084

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