संसार कल्पब्रृक्ष है इसकी छाया मैं बैठकर हम जो विचार करेंगे ,हमें वेसे ही परिणाम प्राप्त होंगे ! पूरे संसार मैं अगर कोई क्रान्ति की बात हो सकती है तो वह क्रान्ति तलवार से नहीं ,विचार-शक्ति से आएगी ! तलवार से क्रान्ति नहीं आती ,आती भी है तो पल भर की, चिरस्थाई नहीं विचारों के क्रान्ति ही चिरस्थाई हो सकती है !अभिव्यक्ति ही हमारे जीवन को अर्थ प्रदान करती है। यह प्रयास है उन्ही विचारो को शब्द देने का .....यदि आप भी कुछ कहना चाहते है तो कह डालिये इस मंच पर आप का स्वागत है….
" जहाँ विराटता की थोड़ी-सी भी झलक हो, जिस बूँद में सागर का थोड़ा-सा स्वाद मिल जाए, जिस जीवन में सम्भावनाओं के फूल खिलते हुए दिखाई दें, समझना वहाँ कोई दिव्यशक्ति साथ में हें ।"
चिट्ठाजगत

बुधवार, 9 सितंबर 2009

मैं तेरे साथ - साथ हूँ।।

देखो तो एक सवाल हूँ
समझो तो , मैं ही जवाब हूँ ।।

उलझी हुई,इस ज़िन्दगी में।
सुलझा हुआ-सा तार हूँ।।

बैठे है दूर तुमसे , गम करो
मैं ही तो बस, तेरे पास हूँ।।

जज्वात के समन्दर में दुबे है।
पर मैं ही , उगता हुआ आफ़ताब हूँ

रोशनी से भर गया सारा समा
पर मैं तो, खुद ही में जलता हुआ चिराग हूँ ।।

जैसे भी ज़िन्दगी है, दुश्मन तो नही है।
तन्हा-सी हूँ मगर, मैं इसकी सच्ची यार हूँ।।

जलते हुए जज्वात , आंखो से बुझेंगे
बुझ कर भी बुझी, मैं ऐसी आग हूँ।।

कैसे तुम्हे बता दें , तू ज़िन्दगी है मेरी
अच्छी या बुरी जैसे भी, मैं घर की लाज हूँ ।।

कुछ रंग तो दिखाएगी , जो चल रहा है अब।
खामोशी के लबो पर छिड़ा , में वक्त का मीठा राग हूँ।।

कलकल-सी वह चली, पर्वत को तोड़ कर
मैं कैसे भूल जाऊ, मैं बस तेरा प्यार हूँ।।

भुजंग जैसे लिपटे है , चंदन के पेड़ पर
मजबूरियों में लिपटा हुआ , तेरा ख्बाव हूँ।।

चुप हूँ मगर , में कोई पत्थर तो नही हूँ।
जो तुम कह सके, मैं वो ही बात हूँ

बस भी कर, के तू मुझको याद
वह सकेगा जो, में ऐसा आव हूँ।।

मेहदी बारातै सिन्दूर चाहिए
मान लिया हमने जब तुम ने कह दिया , मैं तेरा सुहाग हूँ।।

खुद को समझना, कभी तन्हा और अकेला।
ज़िन्दगी के हर कदम पर , मैं तेरे साथ - साथ हूँ।।

11 टिप्पणियाँ:

दीपक 'मशाल',  9 सितंबर 2009 को 1:43 pm बजे  

काबिलेतारीफ रचना, बधाई.

रंजना 9 सितंबर 2009 को 2:27 pm बजे  

वाह !! बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति.....

ओम आर्य 9 सितंबर 2009 को 4:19 pm बजे  

एक बेहद भावपुर्ण रचना..........जिसमे विचार गंगा की तरह प्रवाहमय है.....बधाई

Mishra Pankaj 9 सितंबर 2009 को 5:03 pm बजे  

सुन्दर रचना !!!

बधाई

Himanshu Pandey 9 सितंबर 2009 को 5:08 pm बजे  

चुप हूँ मगर , में कोई पत्थर तो नही हूँ।
जो तुम न कह सके, मैं वो ही बात हूँ "

खूबसूरत रचना । आभार ।

alfaz 9 सितंबर 2009 को 5:49 pm बजे  

ek sampurna rachnba kisi ko apna banane kiye liye.
Well Written...
Keep it Up!!

Udan Tashtari 9 सितंबर 2009 को 11:19 pm बजे  

रोशनी से भर गया सारा समा ।
पर मैं तो, खुद ही में जलता हुआ चिराग हूँ ।।


-बहुत बढ़िया रचना!

Unknown 24 सितंबर 2009 को 6:52 pm बजे  

चुप हूँ मगर , में कोई पत्थर तो नही हूँ।
जो तुम न कह सके, मैं वो ही बात हूँ
gARGIji bahut hi umda asaar hai ye
wah
jo tum na keh sake mein wo baat hun ....aapne sab kuch keh diya ..kuch bhi nahi kaha ....wah

vijay kumar sappatti 9 अक्तूबर 2009 को 10:15 am बजे  

amazing poem gaargi .. mujhe dukh hai ki main bahut dino baad hi ise dekh paa raha hoon .. very good composition , pleas keep it up ..

regards

vijay

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