मन चंचल गगन पखेरू है,
मन चंचल गगन पखेरू है,
मैं किससे बाँधता किसको.
मैं क्यों इतना अधूरा हूँ,
की किससे चाह है मुझको.
वो बस हालात ऐसे थे,
कि बुरा मैं बन नहीं पाया.
मैं फ़रिश्ता हूँ नहीं पगली,
कोई समझाए तो इसको.
ज़माने की हवा है ये,
ये रूहानी नहीं साया.
मगर ताबीज़ ला दो तुम,
तसल्ली गर मिले तुमको.
उसे लम्हे डराते हैं,
कल की गम की रातों के,
है सूरज हर घड़ी देता,
ख़ुशी की रौशनी जिसको.
मैं किससे बाँधता किसको.
मैं क्यों इतना अधूरा हूँ,
की किससे चाह है मुझको.
वो बस हालात ऐसे थे,
कि बुरा मैं बन नहीं पाया.
मैं फ़रिश्ता हूँ नहीं पगली,
कोई समझाए तो इसको.
ज़माने की हवा है ये,
ये रूहानी नहीं साया.
मगर ताबीज़ ला दो तुम,
तसल्ली गर मिले तुमको.
उसे लम्हे डराते हैं,
कल की गम की रातों के,
है सूरज हर घड़ी देता,
ख़ुशी की रौशनी जिसको.
कवि: दीपक 'मशाल' जी की रचना
7 टिप्पणियाँ:
दीपक 'मशाल' जी आप के इस सहयोग के लिए आप का बहुत-बहुत धन्यवाद .
आशा है भविष्य मैं भी आप का सहयोग और प्रेम इसी प्रकार अभिव्यक्ति को मिलता रहेगा , और आप के कविता रुपी कमल यहाँ खिल कर अपनी सुगंघ बिखेरते रहेंगे.
आप की इतनी सुन्दर रचना के लिए तहेदिल से आप का अभिवादन
अरे गज़ब.....ये तो अत्यंत गहरी रचना है.... एकदम मशाल सी.......!!
thanks Gargi ji,
it's a b'day gift to me. :)
मन चंचल गगन पखेरू है,
सही बात है
मन चंचल गगन पखेरू है,
मैं किससे बाँधता किसको.
kya shabd hain...........behtreen.
Kabil- E - Tarif Rachna....ek azadi ka ehsaas jhalakta hain panktiyon mein....
deepak ji
nazm padhkar man trupt ho gaya bhai ...
kudos
meri badhai sweekar kare .
regards,
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com
एक टिप्पणी भेजें