संसार कल्पब्रृक्ष है इसकी छाया मैं बैठकर हम जो विचार करेंगे ,हमें वेसे ही परिणाम प्राप्त होंगे ! पूरे संसार मैं अगर कोई क्रान्ति की बात हो सकती है तो वह क्रान्ति तलवार से नहीं ,विचार-शक्ति से आएगी ! तलवार से क्रान्ति नहीं आती ,आती भी है तो पल भर की, चिरस्थाई नहीं विचारों के क्रान्ति ही चिरस्थाई हो सकती है !अभिव्यक्ति ही हमारे जीवन को अर्थ प्रदान करती है। यह प्रयास है उन्ही विचारो को शब्द देने का .....यदि आप भी कुछ कहना चाहते है तो कह डालिये इस मंच पर आप का स्वागत है….
" जहाँ विराटता की थोड़ी-सी भी झलक हो, जिस बूँद में सागर का थोड़ा-सा स्वाद मिल जाए, जिस जीवन में सम्भावनाओं के फूल खिलते हुए दिखाई दें, समझना वहाँ कोई दिव्यशक्ति साथ में हें ।"
चिट्ठाजगत

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

आज मेरे पास तुम्हारे लिये कुछ नही है......!!

ये बात है खुद से ही ....जिस के पास खुद के लिये कुछ नही है...,
शायद! वो खुद भी नही...

आज मेरे पास तुम्हारे लिये कुछ नही है ,
कल मैं पूरी थी तुम्हारी आज मन भी नही है।
अब तो बस, खाली मकान-सा खण्ङर बचा है ,
इसके विराने भी, गूंजते शोर से काम नही है ।
आज मेरे पास तुम्हारे लिये कुछ नही है॥
कांच का सा मन, फूल का सा तन,
धीरे-धीरे देख पत्थर बन गया है।
पत्थरो में जान तो है , अरमान नही है,
आज मेरे पास तुम्हारे लिये कुछ नही है॥
आज में कहती हूँ, मुझ से दूर हो जा,
अब तो तुझ में रहने की हिम्मत नही है।
आज मेरे पास तुम्हारे लिये कुछ नही है॥

19 टिप्पणियाँ:

ओम आर्य 21 जुलाई 2009 को 5:02 pm बजे  

बहुत ही दिल के करीब लगी ये रचना ......बहुत हद तक सही है.....

अनिल कान्त 21 जुलाई 2009 को 5:42 pm बजे  

दिल के जख्म बहुत गहरे होते हैं

vijay kumar sappatti 21 जुलाई 2009 को 5:47 pm बजे  

amazing expression


no words to say anything for thsi wrirting


गार्गी
तुम्हारी सारी कविताये अमज़िंग है , मैं किसकी तारीफ़ करूँ और किसकी नहीं ....
मेरे पास शब्द नहीं है ...

लिखती रहो

विजय

ajitji 21 जुलाई 2009 को 5:51 pm बजे  

gargi ji,,,,,,,,, shayad ye aapki pahli ya doosri rachana padh raha hu,,,,,, bahut hi sundar aur sarthak likha hai aapne .,,,
dard ki sahaj abhi vyakti ..
aur sach kahne ka adbhut sahas ki parichayak kavita,,
bahut khoob

alfaz 21 जुलाई 2009 को 5:58 pm बजे  

अब तुम कविता से ग़ज़ल की तरफ बाद रहे हूँ, जो दर्द तुम्हारी कविता में उजागर है, उस्सी से ग़ज़ल जनम लेती है, ग़ज़ल और दर्द का बहुत पुराना रिश्ता हैं. दर्द इ दिल से जो कुछ भी लिखा जाता हैं वो बेमिसाल है. लिखे रहिये.और मुस्कराते रहिये.

sanjay vyas 21 जुलाई 2009 को 6:23 pm बजे  

आपकी अपनी रचना देख कर खुद को टिप्पणी से रोक नहीं पाया. पहले भी आपका ब्लॉग विजिट किया है और आज आपकी रचना के साथ. अच्छी, तीव्र भाव प्रधान कविता के लिए बधाई.

Desk Of Kunwar Aayesnteen @ Spirtuality 21 जुलाई 2009 को 6:49 pm बजे  

बधाई हो गार्गी जी, बेहतरीन दिल को छूती हुई रचना.....

Udan Tashtari 21 जुलाई 2009 को 8:20 pm बजे  

गहन भाव लिए एक रचना!! बधाई!

shama 21 जुलाई 2009 को 9:42 pm बजे  

Apne aap ko poora nichhawar karnewala hee ye baat kah sakta hai...!

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आनन्द वर्धन ओझा 22 जुलाई 2009 को 12:32 am बजे  

गर्गीजी,
कविता में पीडा चरम पर है, जो हतबुद्ध करती है और मर्म तक पहुंचती है ! कहीं मैंने ही कहा है--
'पीडा के परिदृश्य बदलते जीवन के साथी हैं...'
विश्वास है , यह पीडा भी पिघलेगी और निर्मल जल बनकर नयी कविताओं में प्रवाहित होगी. बधाई !

श्यामल सुमन 22 जुलाई 2009 को 6:07 am बजे  

कुछ बिशेष भाव को दर्शाती रचना ठीक लगी।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) 22 जुलाई 2009 को 4:22 pm बजे  

गार्गी जी मैंने लगभग आप की सभी रचनाये पढ़ी है हर रचना एक से ये सुंदर है हर्दय की पीडा को पद्रसित करती बहुत ही बेहतरीन कविता
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) 22 जुलाई 2009 को 10:37 pm बजे  

कहें तो किससे कहें कि हमारे पास क्या नहीं है,
मुट्ठी यूँ तो बंद है,मगर उसमें कुछ भी नहीं है !!
गरज ये कि सारे जहां को खिलाने बैठ गए हैं,
और तुर्रा यह कि खिलाने को कुछ भी नहीं है !!
तू यह ना सोच कि मैं तेरे लिए कुछ भी न लाया
हकीकतन तो यार मेरे पास भी कुछ भी नहीं है !!
मैंने तेरा कुछ भी ना लिया है ए मेरे दोस्त,यार
तेरे दिल के सिवा मेरे पास और कुछ भी नहीं है !!
अपनी ही कब्र पर बैठा यह सोच रहा हूँ "गाफिल"
जमा तो बहुत कुछ किया था,पर कुछ भी नहीं है !!

मीत 23 जुलाई 2009 को 11:17 am बजे  

कांच का सा मन, फूल का सा तन,
धीरे-धीरे देख पत्थर बन गया है।
पत्थरो में जान तो है , अरमान नही है,
आज मेरे पास तुम्हारे लिये कुछ नही है॥
आज में कहती हूँ, मुझ से दूर हो जा,
आपकी रचनाये टाप रही हैं धीरे...धीरे यानि की कुंदन बन रही हैं....
बेहद पसंद आयी...
जारी रहे...
मीत

Rohit,  23 जुलाई 2009 को 3:28 pm बजे  

कांच का सा मन, फूल का सा तन,
धीरे-धीरे देख पत्थर बन गया है।
पत्थरो में जान तो है , अरमान नही है,
आज मेरे पास तुम्हारे लिये कुछ नही है॥
आज में कहती हूँ, मुझ से दूर हो जा,
अब तो तुझ में रहने की हिम्मत नही है।
आज मेरे पास तुम्हारे लिये कुछ नही है॥
मै किस लाइन को कोट करू सभी लाइन बहुत बढ़िया है ..
waise aapka sahitya se etna lagaw dekhkar bahut badiya laga ............meri shubhkamnaye aapke sath hai ki aap hum sabhi ko you hi nayi nayi rachnaye hum sabhi ko padwati rahe. aapke har jayaz khwab pure ho yahi kamna hai ...

K.K. Yadav,  23 जुलाई 2009 को 3:32 pm बजे  

सुन्दर रचना....अभिव्यक्ति पर आपकी सुन्दर अभिव्यक्तियाँ !!

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