सच कहता हूँ
सच कहता हूँ
प्रेम निश्वार्थ था तुमसे मुझे
पर तुम्हारे जाने का दर्द
सृजन का माध्यम बन गया ,,,
मै रह ही नहीं पाया
समर्पित
प्रेम के कलरव एकांत के प्रति
न नव सुरम्य जीवन साध्य के प्रति
हर लम्हे को उतारा है मैंने
शब्दों से दिल के बाहर भी
नयन सुख से मिलन की हर बेला तक
मैंने समर्पण को समर्पित कर दिया है ,,
पर अभी भी एक रिश्ता है तुम्हारा
मेरे सृजन से
दर्द ,, दोनों में है ,,,,
तो सोचता हूँ
त्याग दूँ तुम्हारी यादों को
जिस से दर्द में डूबा
सृजन तो बंद हो ,,,
आखिर जब मै समर्पित ही नहीं रहा
तुम्हारे एकान्त तुम्हारे मान के प्रति
तो ये खोखला सृजन क्यूँ
तुम्हारा नाम लेकर
तुम्हारे नाम के लिए
कवि : ''अजीत त्रिपाठी'' जी की रचना
11 टिप्पणियाँ:
अजीत जी आप के इस सहयोग के लिए आप का बहुत-बहुत धन्यवाद .
आशा है भविष्य मैं भी आप का सहयोग और प्रेम इसी प्रकार अभिव्यक्ति को मिलता रहेगा , और आप के कविता रुपी कमल यहाँ खिल कर अपनी सुगंघ बिखेरते रहेंगे.
आप की इतनी सुन्दर रचना के लिए तहेदिल से आप का अभिवादन
waah.............
kya khoob kavita
bahut khoob kavita
badhaai 1
सुन्दर अभिव्यक्ति -- सशक्त भाव
yun lagata hai jo kuchh mere andar chal raha tha, jo kuchh main kahan chah rahi thi, aapane sab kah diya. Mujhe mere hi man ka hl jan padata hai is kavita me.
bahut khub,
badhai.
प्रशंसनीय रचना
bahut achhi rachna hai ji...
dhanywad...
सुंदर भाव .. अच्छी अभिव्यक्ति !!
प्रस्तुतकर्ता गार्गी गुप्ता को इस प्रस्तुति के लिये बधाई
भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए,
आभार!
dhanyawaad aap sabhi ko
aapki sarahana aur prtsahan srijan ke marg par sada hi mera margdarshan karega,,,,,,,,,
gargi ji
is rachana ko yahan rakhne ke liye
mai hriday se aapka aabhari hun
aise hi sneh banaaye rakhen
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