आदमी
हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी,
फिर भी तणियोन का शिकार आदमी ।
रोज़ जीता हुआ, रोज़ मारता हुआ,
ज़िन्दगी से लड़ता हुआ आदमी ।
सब कुछ छूट जायेगा यही पर ,
मोह माया में जीता हुआ आदमी।
आपनि मंज़िल से हैं अनजान हैं आदमी ,
फिर भी मुसाफ़िर हैं यह आदमी ।
मिलता हैं रोज़ एक नया आदमी ,
लेकिन जीवन की दगर पे ,
हर पल अकेला आदमी ।
हर पल अकेला आदमी ।
कवि : भाई गुरशरण जी की रचना
13 टिप्पणियाँ:
भाई गुरशरण, आप के इस सहयोग के लिए आप का बहुत-बहुत धन्यवाद .
आशा है भविष्य मैं भी आप का सहयोग और प्रेम इसी प्रकार अभिव्यक्ति को मिलता रहेगा , और आप के कविता रुपी कमल यहाँ खिल कर अपनी सुगंघ बिखेरते रहेंगे.
आप की इतनी सुन्दर रचना के लिए तहेदिल से आप का अभिवादन
गार्गी आपका प्रयास बहुत ही अच्छा लगा । एक मंच पर हिन्दी साहित्य के विविध रंग देखते हुए खुश हूं । गुरशरण जी की रचना आज " हिन्दी साहित्य मंच " पर भी प्रकाशित है ।यहां देखें-http://hindisahityamanch.blogspot.com/2009/07/blog-post_31.html । बधाई
अकेलेपन का यह एहसास ही तो आदमी को भीड से अलग करती है
बहुत अच्छी रचना
bahut hi sahi bat kahi hai .....aadami to akela hai....
बहुत ही सुन्दर रच्ना!
आजकल आप अच्छी अच्छी रचनायें पढ़वा रही हैं ...वाह
बहुत ही सुन्दर अच्छी रचना . बधाई.
UMDA RACHNAA..........
अच्छा लिखा है आपने । भाव, विचार और सटीक शब्दों के चयन से अभिव्यक्ति बड़ी प्रखर हो गई है। -
http://www.ashokvichar.blogspot.com
ये ग़ज़ल सिर्फ इक अन्य ग़ज़ल,जिसे जगजीत सिंह ने गया है,से अभिप्रेरित है,बल्कि दो शेरों से इक-इक शब्द बदल-बदल कर ज्यों-का-त्यों रख दिया गया है !!ऐसा महसूस होते ही बाकी के शरों का प्रभाव अपने-आप ही का लगने लगता है,लेखक को चाइये कि बेशक वो किसी से प्रेरित हो,मगर उससे आगे वो अपनी ही सोच में सोहे,भले वो थोडी-सी उन्नीस रचना क्यों ना ठहरे,,,,!!
bahut he achha likha hai...
keep inspiring n writing...
sateek shabdon me sarthak rachana,,
badhaai aapko
main bhootnath ji se sahmat hoon.
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