मुझे भी महजबी अपना गुलाम कर दे
बिखरा के जुल्फे फ़िर शाम कर दे
कुछ हसी पल आज मेरे नाम कर दे
मुद्दत से बहता है ये दरिया बनकर
अपने होठो से छूकर इसे जाम कर दे
अब तलक छुपा रखा है जो हिजाब मे
उठाकर परदा जलवा- ऐ-आम कर दे
कैद कर जलवा-ऐ-हुस्न की जंजीर से
मुझे भी महजबी अपना गुलाम कर दे
कुछ हसी पल आज मेरे नाम कर दे
मुद्दत से बहता है ये दरिया बनकर
अपने होठो से छूकर इसे जाम कर दे
अब तलक छुपा रखा है जो हिजाब मे
उठाकर परदा जलवा- ऐ-आम कर दे
कैद कर जलवा-ऐ-हुस्न की जंजीर से
मुझे भी महजबी अपना गुलाम कर दे
कवि: रोहित कुमार "मीत" जी की रचना
8 टिप्पणियाँ:
रोहित कुमार "मीत" जी, आप के इस सहयोग के लिए आप का बहुत-बहुत धन्यवाद .
आशा है भविष्य मैं भी आप का सहयोग और प्रेम इसी प्रकार अभिव्यक्ति को मिलता रहेगा , और आप के कविता रुपी कमल यहाँ खिल कर अपनी सुगंघ बिखेरते रहेंगे.
आप की इतनी सुन्दर रचना के लिए तहेदिल से आप का अभिवादन
रोहित कुमार "मीत" जी, आप के इस सहयोग के लिए आप का बहुत-बहुत धन्यवाद .
आशा है भविष्य मैं भी आप का सहयोग और प्रेम इसी प्रकार अभिव्यक्ति को मिलता रहेगा , और आप के कविता रुपी कमल यहाँ खिल कर अपनी सुगंघ बिखेरते रहेंगे.
आप की इतनी सुन्दर रचना के लिए तहेदिल से आप का अभिवादन
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ।
achchhi rachna padhvane ke liye shukriya
बहुत ही सुन्दर रचना है भाई आपने तो ऐसे ही गुलाम कर दिया क्या बात है ..........बहुत सुन्दर गढी है कविता ......गीत के भांति सुर और ताल मे पढ डाली ......शुक्रिया
वैसे भी हम आजाद कहाँ है?
रचना बहुत ही सुन्दर है।
मीत जी को शुभकामनाएँ।
आपको धन्यवाद।
bhaut he uttam baat kahi hai kavita mein...
shukriya and badhai...
अब तलक छुपा रखा है जो हिजाब मे
उठाकर परदा जलवा- ऐ-आम कर दे..
bahut hi sundar sher kahen hain
aapne,,,,,,,, sundar prastuti ke liye badhaai
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