मैंने वो सपना सहेज रखा है...
उनींदी स्याह रातों में...
रिश्तों की उलझी डोर से,
जिसे तुमने बुना था,
वो सपना...
मैंने सहेज रखा है...
हाँ वही सपना...!!
जो तुम्हें जान से प्यारा था..
वही सपना...
जो तुम्हारे मन का सहारा था...
पलकों की चादर फैंक,
आज ये कहीं उड़ जाना चाहता है...
जब रोकता हूँ इसको
तो घंटो छटपटाता है...
ना जाने देना इसको
तुमने ही तो कहा था,
पलकों के किनारे इसको
तुमने ही तो रखा था...
हाँ...देखो ना...
वो सपना
मैंने सहेज रखा है...
'' मीत जी की रचना
7 टिप्पणियाँ:
मेरी रचना को स्थान देने के लिए गार्गी जी आपका धन्यवाद....
मीत
सुन्दर ..
गणेश उत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ।
मीत जी आप के इस सहयोग के लिए आप का बहुत-बहुत धन्यवाद .
आशा है भविष्य मैं भी आप का सहयोग और प्रेम इसी प्रकार अभिव्यक्ति को मिलता रहेगा , और आप के कविता रुपी कमल यहाँ खिल कर अपनी सुगंघ बिखेरते रहेंगे.
आप की इतनी सुन्दर रचना के लिए तहेदिल से आप का अभिवादन
Ati sundar.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को प्रगति पथ पर ले जाएं।
बेहद खूबसूरत रचना
बहुत सुंदर रचना...
बहुत अच्छी रचना है
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