संसार कल्पब्रृक्ष है इसकी छाया मैं बैठकर हम जो विचार करेंगे ,हमें वेसे ही परिणाम प्राप्त होंगे ! पूरे संसार मैं अगर कोई क्रान्ति की बात हो सकती है तो वह क्रान्ति तलवार से नहीं ,विचार-शक्ति से आएगी ! तलवार से क्रान्ति नहीं आती ,आती भी है तो पल भर की, चिरस्थाई नहीं विचारों के क्रान्ति ही चिरस्थाई हो सकती है !अभिव्यक्ति ही हमारे जीवन को अर्थ प्रदान करती है। यह प्रयास है उन्ही विचारो को शब्द देने का .....यदि आप भी कुछ कहना चाहते है तो कह डालिये इस मंच पर आप का स्वागत है….
" जहाँ विराटता की थोड़ी-सी भी झलक हो, जिस बूँद में सागर का थोड़ा-सा स्वाद मिल जाए, जिस जीवन में सम्भावनाओं के फूल खिलते हुए दिखाई दें, समझना वहाँ कोई दिव्यशक्ति साथ में हें ।"
चिट्ठाजगत

बुधवार, 26 अगस्त 2009

सैलाबे-जुनूँ-ए-इश्क, तुम ही सह नहीं पाए.....


कभी मैं चल नहीं पाया, कभी वो रुक नहीं पाए।
मेरे जो हमसफ़र थे, साथ वो रह नहीं पाए।।

मेरे घर में नहीं आई, कितने सालों से दीवाली।
तू आ जाये तो आँगन में, अँधेरा रह नहीं पाए।।

लगाते हैं सभी तोहमत, मैं तुझसे हार जाता हूँ।
मेरी हस्ती ही ऐसी है, कि कोई टिक नहीं पाए।।

मैं माँझी हूँ मगर खुद न, कभी उस पार जा पाया।
मेरे अरमाँ ही लहरों पे, कभी भी बह नहीं पाए।।

कमर टूटी नहीं मेरी, किसी की जी-हुजूरी से।
बोझ बढ़ता गया हर पल, पर काँधे झुक नहीं पाए।।

ना फ़रेब कह देना, सिला-ए-चाहत कों 'मशाल'।
सैलाबे-जुनूँ-ए-इश्क, तुम ही सह नहीं पाए।।

कवि : दीपक 'मशाल' जी की रचना

14 टिप्पणियाँ:

उम्मीद 26 अगस्त 2009 को 11:19 am बजे  

दीपक 'मशाल' जी आप के इस सहयोग के लिए आप का बहुत-बहुत धन्यवाद .
आशा है भविष्य मैं भी आप का सहयोग और प्रेम इसी प्रकार अभिव्यक्ति को मिलता रहेगा , और आप के कविता रुपी कमल यहाँ खिल कर अपनी सुगंघ बिखेरते रहेंगे.
आप की इतनी सुन्दर रचना के लिए तहेदिल से आप का अभिवादन

Mithilesh dubey 26 अगस्त 2009 को 11:57 am बजे  

लाजवाब रचना, बेहतरिन अभिव्यक्ति । बहुत सुन्दर

परमजीत सिहँ बाली 26 अगस्त 2009 को 12:15 pm बजे  

बहुत बढिया व सुन्दर रचना है।एक बेहतरीन रचना पढवाने के लिए धन्यवाद।

Dr. Zakir Ali Rajnish 26 अगस्त 2009 को 2:35 pm बजे  

दीपक जी कहिए, ये मशाल जलाए रखें।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

निर्मला कपिला 26 अगस्त 2009 को 2:39 pm बजे  

कभी मैं चल नहीं पाया, कभी वो रुक नहीं पाए।
मेरे जो हमसफ़र थे, साथ वो रह नहीं पाए।।

कमर टूटी नहीं मेरी, किसी की जी-हुजूरी से।
बोझ बढ़ता गया हर पल, पर काँधे झुक नहीं पाए।।
दोनो शेर लाजवाब हैं बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है। देपक जी को बधाई

निर्मला कपिला 26 अगस्त 2009 को 2:39 pm बजे  

कभी मैं चल नहीं पाया, कभी वो रुक नहीं पाए।
मेरे जो हमसफ़र थे, साथ वो रह नहीं पाए।।

कमर टूटी नहीं मेरी, किसी की जी-हुजूरी से।
बोझ बढ़ता गया हर पल, पर काँधे झुक नहीं पाए।।
दोनो शेर लाजवाब हैं बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है। देपक जी को बधाई

ओम आर्य 26 अगस्त 2009 को 4:30 pm बजे  

एक एक पंक्तिया दिल को छू गयी ......जिन्दगी को बडी सकून दिया पढने के बाद ......एक बेहतरिन रचना

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 26 अगस्त 2009 को 6:23 pm बजे  

दीपक मशाल जी की इस सुन्दर रचना को पढ़वाने के लिए आभार!

बेनामी,  26 अगस्त 2009 को 6:33 pm बजे  

एक शानदार ग़ज़ल पेश की है अपने.
बधाई. काबिल इ तारीफ.

Mithilesh dubey 26 अगस्त 2009 को 7:12 pm बजे  

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है। लाजवाब गजल, दीपक जी को बधाई ।

दीपक 'मशाल',  26 अगस्त 2009 को 7:20 pm बजे  

ग़ज़ल प्रकाशित करने के लिए गार्गी जी को धन्यवाद् और इतने प्यार के लिए आप सबका बहुत बहुत आभारी हूँ.

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) 27 अगस्त 2009 को 8:49 am बजे  

kyaa baat hai.....dipak ji......khoob likha hai aapne.......aapki "mashaal"isi tarah jalti rahe....!!

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